हमर संस्कृति हा हजारों बछर मा थोक-थोक करके पनपे हवय, ते पाय के जम्मों चीज मा काहीं ना काहीं गूढ़ बात नइते बिग्यान लुकाय रथे, जेनहा सोजहे मा नइ समझ आवय। अब हमर खान-पान ला देख लव, कते मऊसम मा का खाना हे का बनाना हे अउ ओखर हमर तन मन धन अउ समाज मा का असर परही सबला सियान मन बड़ सोच के हमर संस्कृति ला सिरजाय रीहिन। बरी-बिजौरी बनाना, उपराहा माढ़े चीज जइसे सेमी, पताल, भांटा, आमा, के खुईला करना, चाँउर पापड़, हरदी, मिरचा मसाला ला सुखोना कुटना पिसना ये सब ला माई लोगन मन हा घरे में कर डारे, बारी बखरी के साग पान ले घर खरचा चला के ओमन हा घर के बेवस्था ला संभाल डारे। हमर खान-पान के अउ छत्तीसगढ़ी संस्कृति के चिन्हा बरी बिजौरी मा घलो बिग्यान लुकाय हे। येला दाई महतारी मन जड़ कल्ला मा बना सूखो के राखय अउ बछर भर खान-पान मा बउरे।
बरी कई किसम के बनथे, अदवरी बरी, मखना बरी, रखिया बरी, अउ नवा उदीम करईया मन तो पपीता, मुरई, नवलगोल के घलो बरी बनाथे। फेर रखिया बरी ला जम्मों जगा जानथे अउ बनाथे, येहा गजब के सुहाथे घलो। रखिया के फसल जड़कल्ला मा होथे, अब तो रखिया बिसा के लाने ला परथे, फेर पहिली बारी बखरी के रखिया लान के बरी बना डारें, अउ रखिया उपराहा राहे त पारा परोस मा घलो बाँट दँय। रखिया ला दू भाग मा फोर के ओला करोनी मा घँस-घँस के झेंझरी टूकनी मा राख के ओखर पानी ला निथारे जाथे। अउ पहिली ले फिजे उरीद दार ला सील-लोढ़ा मा एक नेत के पीसे जाथे, ताहन बड़े सरीख गंज, बर्तन मा पिसाय दार, अउ रखिया के करी ला मिंझार के फेंटे जाथे, ताहन घाम मा जाके पर्रा सूपा मा पानी छू-छू के बरी बना के छानी परवा नइते छत मा घाम पाय तइसन जगा मा सुखोय जाथे। बिजौरी बर घलो उरीद दार फिजो के पीस के बड़े सरीख गंज, बर्तन मा राखे जाथे, फेर बिजौरी मा मसाला कतका होना चाही तेला जानना घलो कला आय, सादा तील, मिरचा अदरक ला पीस के, अउ मखना के बीजा ला नून संग मा डार के कस के फेंटे जाथे, ताहन घाम मा लेग के पर्रा सूपा मा एके बानी के गोल गोल बना के सुखोय जाथे। ये सब बूता ला माई लोगन मन जड़कल्ला मा बडे फजर ले रोज थोक-थोक करके करथे। अउ सिरजाय अइसन जिनिस के सुवाद हा घलो अउ कहूँ मा नइ मिलय।
सिरतोन कबे ता येहा बड़ मिहनत के बूता आय, फेर अब येमा लुकाय बिग्यान ला देखव, जम्मों झन कथे के बियाम हा सरीर बर जरूरी चीज आय अउ बडे फजर जड़कल्ला के बियाम हा तो बड़ असर करथे। त दार पीसे, रखिया करोय, अउ वोला फेंटे मा सरीर के जबर बियाम हो जथे, फेर येला घाम मा बनाय जाथे, त माई लोगन मन के इही बहाना घाम तपई घलो हो जथे, नइते माई लोगन मन घाम तापे के लइक रीता कभू नइ होय। फेर कई घंटा उखरु बइठे-बइठे सरकना घलो जबर बियाम हरे। लइकोरी मन संग लइका मन हा घलो तीर-तार मा रेहे रइथे। अउ केहे जाथे के बिहिनिया जुआर सूरज के प्रकाश पाये ले विटामिन डी मिलथे, जेहा लइका मन बर बड़ उपयोगी आय। फेर हाथ के बने खान-पान के चीज हा तन बर बनेच होथे। बरी बिजौरी के गुन के सेतन येला लइकोरी माई लोगन ला जँचकी के बाद बड़ दिन ले खवाय जाथे।
बारो मास हरियर साग-भाजी नइ मिलय, अउ कभू-कभू घर मा रुपिया पइसा घलो नइ राहय अइसन मा बरी-बिजौरी, अचार, पापड़, खुइला मन के राहत ले खान-पान बर चिन्ता नइ करना पड़े। हमर संस्कृति के जम्मों जिनिस मा कतको अकन नफा हे। फेर आज के लोगन हा ये सबला छोंड़ के नकल संस्कृति ला अपनावत हे। अरबन-चरबन पीजा-बरगर मा झपावत हे, अउ अपने सरीर समाज अउ परयावरण ला खोखला करत हे।
ललित साहू “जख्मी” छुरा
जिला-गरियाबंद (छ.ग.)
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बड़ सुघ्घर लागिस आप मन के लेख ह।